प्रमोद कुमार
प्रेमचंद की एक बहुप्रचलित तस्वीर ही अलग-अलग स्केचिंग के साथ छपती व दिखती है. मैंने उसके अतिरिक्त उनकी तीन-चार तस्वीरें ही देखी है. एक में किसी बैठक में वह और नेहरु जी साथ-साथ बैठे हैं. एक दूसरे में वह व जयशंकर प्रसाद साथ खड़े हैं. एक अन्य में वह बिस्तर पकड़ चुके हैं, निराला जी बगल में दुखी मन बैठे हैं. लेकिन, इन सभी से अधिक अर्थपूर्ण उनकी वह तस्वीर है जिसमें वह अपनी पत्नी शिवरानी देवी के साथ बैठे हैं. उस तस्वीर का महत्त्व इसलिए भी है कि वह एक खिंचवायी हुई तस्वीर है. उस तस्वीर में प्रेमचंद के जूते फटे हुए है.
प्रेमचंद के जूते फट गए होंगे. तब लोग फटे जूतों को मरम्मत करा कर पहनते रहते थे. (निम्न व निम्न-मध्य वर्ग के लोग आज भी ऐसा करते है.) या तो प्रेमचंद के पास इतने पैसे न होंगे कि वह जूते मरम्मत करा सकते या दूसरे जरूरी काम उनके सिर पर सवार होंगे. दोनों कारण एक साथ भी रहे होंगे. जूते इस तरह फटे दिख रहे कि वह मरम्मत के लायक भी न थे. फिर केवल फोटो खींचने प्रेमचंद जूते मरम्मत कराने कहीं जाने वाले न थे. जूते मरम्मत कराते तो क्यों न धोती कुरता भी प्रेस कराते. फोटोग्राफर दर्पण के सामने ले जाता, क्रीम पाउडर कंघी कराता. आजकल फोटोग्राफी एक सुगम और चलता फिरता काम है, आज की दृष्टि से उस समय की फोटोग्राफी को नहीं समझा जा सकता. वर्ष १९७० में (मेरे बचपन में) मेरा परिवार ग्रुप फोटोग्राफी कराने एक स्टूडियो गया था. उसके लिए एक दिन पहले से हम मन बना रहे थे, तैयारी कर रहे थे जैसे वह कोई बड़ा काम रहा हो. तब वह महत्त्वपूर्ण काम था भी, कई दिनों तक हम अपना फोटो लोगों को दिखाते रहे. प्रेमचंद का यह फोटो तो वर्ष १९७० से कम से कम चालीस साल पहले का लगता है. उन दिनों पत्नी के साथ फोटोग्राफी कराना तो एक कठिन व दुर्लभ काम रहा होगा. लेकिन, प्रेमचंद ने उस दुर्लभ क्षण के लिए भी अपने जूते मरम्मत नहीं कराये.
इसी तस्वीर पर ‘प्रेमचंद के फटे जूते” शीर्षक लेख में हरिशंकर परसाई ने लिखा है – ‘सोचता हूँ—फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी—इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।”
“मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! ”
“मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।“
“तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो ज़िंदगी भर इस तरह नहीं खिचाउँ, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।“
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है यह ? ”
प्रेमचंद की कहानियों के नायक किसान, खेत मजदूर, व दलित स्त्री-पुरुष हैं, जिनके पास जूतों के होने न होने का कोई अर्थ नहीं था. देश के सबसे बड़े नेता गाँधी जी कोई ब्रांडेड जूता नहीं, चमरौधा चप्पल पहनते थे.
प्रेमचंद के उन फटे जूतों और उनकी उस मुस्कान ने भारतीय लेखकों के लिए कुछ आचार-व्यवहार तय कर दिये. “जिन्हें धन-वैभव प्यारा है, साहित्य-मंदिर में उनके लिए स्थान नहीं है। प्रेमचंद के वे फटे जूते निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन समेत अनेक लेखकों के पावों में दिखते रहे. यहाँ गोरखपुर में भी विज्ञ, देवेन्द्र कुमार आदि कई लेखकों के रास्तों में वे पाए गए.
प्रेमचंद का वह सपत्निक चित्र केवल प्रेमचंद के बारे में ही नहीं, वह उस काल की बहुत सी बातों को बताता है. चित्र में एक कुर्सी पर प्रेमचंद और दूसरी पर उनकी पत्नी शिवरानी देवी हैं. दोनों कुर्सियां आपस में सटी हुयी हैं, लेकिन पति-पत्नी एक दूसरे से हट-हट कर बैठे हैं. दोनों के बीच दोनों कुर्सियों पर खाली जगह साफ-साफ दिखाती है. प्रेमचंद ने विधवा विवाह किया था, कायस्थों में ऐसा विवाह अस्वीकार्य था. प्रेमचंद ने विद्रोह कर ऐसी शादी की थी.प्रेमचंद ने विधवा समस्या को अपने लेखन में बार-बार उभरा. ‘गबन ‘ में विधवा रतन कहती है “ न जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था कि पति के मरते ही नारी स्वत्व वंचिता हो जाति है.
उस समय न तो समाज में व्यक्तिगत प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन प्रचलित था, न प्रेमचंद को ही वैसी कोई बात पसंद थी. वह स्त्री के आर्थिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे, पर, पश्चिमी सभ्यता के अनुकरण को नकारते थे , गोदान में मिस मालती का व्यंग्यपूर्ण परिचय हम देख सकते हैं. संघर्षरत व मेहनतकश नारियां प्रेमचंद की कहानियों की जान हैं. गोदान की धनिया सशक्त इरादे की निडर और विद्रोह का साहस रखने वाली स्त्री है. उनके सभी उपन्यासों में स्त्रियों के चित्र बहुत भास्वर हैं लेकिन तीन उपन्यास ‘ सेवासदन’ , ‘निर्मला’ और ‘गबन’ तो पूरी तरह स्त्री समस्या पर ही केंद्रित हैं ।
प्रेमचंद अपनी पत्नी को बहुत प्रेम और सम्मान देते थे. प्रेमचंद के अतिरिक्त उस काल के किसी बड़े लेखक की पत्नी के साथ कोई तस्वीर देखने को नहीं मिलाती. वह गाँधी जी को सुनने गोरखपुर की जन सभा में पत्नी व बच्चों के साथ उपस्थित हुए थे. सरकारी नौकरी को त्यागने के निर्णय में अपनी पत्नी की सहमति प्राप्त की थी. उन दिनों पत्नी को इतना जनतान्त्रिक अधिकार किसी अन्य लेखक ने दी हो- ऐसी कोई सूचना मुझे नहीं है. शिवरानी देवी की पुस्तक ‘ प्रेमचंद घर में ’ को पढ़े बगैर प्रेमचंद को नहीं समझा जा सकता. उस पुस्तक के बारे में बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा है
“ प्रेमचंद जी तथा शिवरानी देवीजी के वार्तालाप इतने स्वाभाविक ढंग से लिखे गये हैं कि वे किसी भी पाठक पर अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहेंगे। इन वार्तालापों से जहां प्रेमचंदजी का सहृदयतापूर्ण रूप प्रकट होता है, वहीं शिवरानीजी का अपना अक्खड़पन भी कम आकर्षक नहीं है। यह बात इस पुस्तक के पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है कि शिवरानी जी प्रेमचंद की पूरक थीं, उनकी कोरमकोर छाया या प्रतिबिम्ब नहीं। “
बंधन युक्त उन दिनों की बात छोडिये, आज के बंधन मुक्त समय में भी कोई बड़ा या छोटा लेखक साहित्यिक या साहित्येतर आयोजनों में अपनी पत्नी के साथ नहीं दिखता. मेरी पत्नी इस पर मुझसे कई बार शिकायत कर चुकी है, उसका कहना है कि वह कहीं साथ जाएगी तो मैं बाहर क्या बोलता हूँ और घर में क्या हूँ – उसका भेद खुल जायेगा. मैंने एक और लेखक के आँगन से आती कुछ ऐसी ही आवाज़ सुनी थी. कान लगाकर सुनने पर कई घरों में कैदी की घुटन सुनी जा सकती है. आज लेखकों के जीवन में कथनी-करनी की कई-कई परतें हैं. आखिर आज स्त्री पर पुरुषों का लेखन या स्वयं स्त्री लेखन अपनी कुल साहसिकता के बावजूद एक भी जीवंत और याद रह जाने लायक पात्र का सृजन नहीं कर पा रहा है तो उसे आत्मावलोकन करना चाहिए और इस पुरोधा से टकराते हुए प्रेरणा लेनी चाहिए ।
( प्रमोद कुमार वरिष्ठ कवि हैं )