प्रेमचन्द साहित्य संस्थान
आलेख

प्रेमचंद को कैसे पढ़ें ?

सुनने में यह थोड़ा विचित्र लग सकता है लेकिन है जरूरी सवाल । जरूरी इसलिए कि प्रेमचंद को पढ़ने की इतनी दृष्टियाँ हैं ,इतने विचार हैं,इतनी उठापटक है कि इन सबके बीच मूल प्रेमचंद छुप से जाते हैं। यह कोई आज की ही बात नहीं है ,जब से प्रेमचंद ने लिखना शुरू किया विवाद उनके पीछे लगे रहे हैं । कोई कहेगा कि ग्राम जीवन तो ठीक ,शहरी जीवन प्रेमचंद से नहीं सधता,कोई कहेगा समाज का बाहरी स्वरूप तो है ,मन की जटिलताओं की समझ नहीं हैं,कोई कहेगा स्त्री मन की समझ नहीं है । इस क्रम में प्रेमचंद पर बहुतेरे हमले भी हुए। पहला हमला उनको घृणा का प्रचारक कह कर किया गया । प्रेमचंद ने साहित्य के परिसर को विस्तार दिया । शताब्दियों से जिनका जीवन और जीवन संघर्ष साहित्य के दायरे से बहिष्कृत था ,उन्हें साहित्य के दायरे में ले आए । जब साहित्य के परिसर में सूरदास ,होरी,धनिया ,दुक्खी ,मंगल ,गंगी ,घीसू ,माधो जैसे पात्रों का दाखिला हुआ और उनके जीवन की कहानी कही जाने लगी। साहित्य के परिसर पहले से जड़ जमाये बैठे लोगों की जमीन सरकनी शुरू हुई । बुरा लगना स्वाभाविक था। सो प्रेमचंद के ऊपर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगा ,मुकदमे हुए। प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक कहकर निंदित किया गया । और प्रेमचंद को इसी नजर देखने का प्रस्ताव हुआ ।
गोरखपुर में गांधी का आगमन हुआ । प्रेमचंद गांधी को सुनने गए और लौट कर थोड़े दिन में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया । पूर्णकालिक लेखन में लग गए । गांधी और गांधी के आंदोलन के प्रति उनकी सहानुभूति थी, लिहाजा प्रेमचंद का एक गांधीवादी पाठ तैयार हुआ और उन्हें गांधीवाद के दायरे में पढ़ने का नजरिया सामने आया ।
मृत्यु के थोड़े दिन पहले प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। प्रगतिशील लेखक संघ ही नहीं प्रगतिशील धारा ने प्रेमचंद को अपने गोल में शामिल मान लिया और प्रेमचंद का प्रगतिशील पाठ आया । प्रगतिशीलता के चैम्पियन के रूप में प्रेमचंद पढे और देखे गए। प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष के रूप में प्रेमचंद ने ‘साहित्य का उद्देश्य’ शीर्षक व्याख्यान दिया था जिसे प्रगतिशीलता के घोषणा पत्र का दर्जा मिला। लेकिन प्रेमचंद के इसी व्याख्यान से सूत्र लेकर उन्हें प्रगतिशीलता के दायरे से बाहर देखने का प्रस्ताव भी किया गया। प्रेमचंद के कथन ‘लेखक स्वभावत: प्रगतिशील होता है’,के हवाले से उन्हें प्रगतिशील खेमें से बाहर दिखाने की कोशिशें होती रहीं।और प्रेमचंद का हिन्दू पाठ भी तैयार हुआ । मजे की बात यह कि प्रगतिशील खेमें में प्रेमचंद की जितनी स्वीकार्यता थी प्राय: उतनी ही प्रगतिशीलता विरोधी समूह में। प्रेमचंद ने अपने इसी व्याख्यान में कहा था –‘साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि राजनीति से आगे चलने वाली मशाल है’ । प्रेमचंद का यह वाक्य मार्क्सवाद के आधार और अधिरचना वाली थीसिस के विरुद्ध था, इसलिए कुछ अतिवाम लोगों ने प्रेमचंद की समझ को प्रश्नांकित भी किया। इसी क्रम में दलित आंदोलन आया और उसने प्रेमचंद को दलित विरोधी करार दे दिया । प्रेमचंद को खारिज करने वाली किताबें लिखी गईं, तक़रीरें हुईं और रंगभूमि की प्रतियाँ तक जलायी गईं।
इस नजरिए से देखें तो लेखक प्रेमचंद का व्यक्तित्व बहुत दिलचस्प है। परस्पर विरोधी धाराओं ने उन्हें स्वीकार भी किया तो लांछित और निंदित भी किया । एक ओर वे ब्राह्मण विरोधी और घृणा के प्रचारक माने गए तो दूसरी ओर उन्हें दलित विरोधी और सवर्ण करार दिया गया । इन सारी बातों के बावजूद समाज में प्रेमचंद की मौजूदगी बदस्तूर बनी हुई है । साहित्य पढ़ना –पढ़ाना जिनकी रोजी रोटी है उनको छोड़ भी दें तो प्रेमचंद की जयंती पर दूर दराज से कुछ बोलने और लिखने के अनुरोध आने लगते हैं। हिन्दी समाज में लेखक के रूप में प्रेमचंद की लोकप्रियता की तुलना कबीर और तुलसीदास जैसी है । (संयोग यह कि तुलसीदास और प्रेमचंद की जयंती आस पास ही होती है,और यह संयोग कि प्रेमचंद जयंती के लिए यह टिप्पणी आज तुलसी जयंती के दिन लिख रहा हूँ। ) इसलिए जो जनता प्रेमचंद से इतना प्यार करती है,वह इस पचड़े में नहीं पड़ती कि प्रेमचंद गांधीवादी हैं कि समाजवादी ,मार्क्सवादी हैं कि राष्ट्रवादी वह केवल यह देखती है प्रेमचंद हमारे हैं और हमारे रोज़मर्रा के सवालों ,समस्याओं को संबोधित करने वाले लेखक हैं। प्रेमचंद को मानने वाले लोगों में इतनी विविधता है कि उन्हें किसी एक कोटि में रखना संभव नहीं है । इसलिए प्रेमचंद को पढ़ते समय कोई एक सरणि चुनना प्रेमचंद को सीमित करना है ।
कभी कभी मुझे लगता है कि प्रेमचंद को पढ़ते समय किसी आलोचक अथवा किसी वादी –विवादी दृष्टिकोण के बजाय प्रेमचंद से प्यार करने वाले पाठकों के नजरिए से प्रेमचंद को पढ़ा जाय । लेकिन सवाल यह भी है कि उस सूत्र को कैसे पकड़ें जिसके नाते प्रेमचंद इतने महबूब लेखक बने हुए हैं। इस पर विचार करते हुए मेरे ध्यान में दो निबंध आए जिन्हें किसी आलोचक ने नहीं; बल्कि दो रचनाकारों ने लिखे हैं। एक लेख हिन्दी के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का है –‘मेरी मन ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया’और दूसरा लेख हिन्दी के कथाकार व्यंग्यकर हरीशंकर परसाई का है –‘प्रेमचंद के फटे जूते’। मजे कि बात यह है कि इन दोनों लेखकों ने प्रेमचंद पर लिखते हुए किसी कहानी ,उपन्यास या अग्रलेख्न को आधार नहीं बनाया है। आधार किसी विचार सरणि को भी नहीं बनाया है। दोनों लेखकों को प्रेमचंद पर लिखने कि प्रेरणा उनकी फोटो देखकर हुई। परसाई लिखते हैं :’प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।
पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ – फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी – इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है’। अब मुक्ति बोध का बयान सुन लीजिए- ‘एक छाया-चित्र है । प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं । प्रसाद गम्भीर सस्मित । प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य । विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नजर ठहरने का एक और कारण भी है । प्रेमचन्द का जूता कैनवैस का है, और वह अँगुलियों की ओर से फटा हुआ है । जूते की कैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मजे से मैदान की हवा खा रही है । फोटो खिंचवाते वक्त प्रेमचन्द अपने विन्यास से बेखबर हैं । उन्हें तो इस बात की खुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं’ । यानि दोनों लेखकों को प्रेमचंद कि सहज रहनि आकृष्ट करती है । ध्यान से देखें तो दोनों लेखकों ने प्रेमचंद का जो चित्रा खींचा है वह एक आम भारतीय का ही चित्र है। हमारे ये दोनों लेखक हमें यह बताते हैं कि प्रेमचंद की असाधारणता का स्रोत वास्तव में उनकी साधारणता में है । यह साधारणता या सहज रहनि हिन्दी के भक्त कवियों की बानी से छन कर आती है।
मुक्तिबोध लिखते हैं- ‘मेरी माँ सामाजिक उत्पीड़नों के विरूद्ध क्षोभ और विद्रोह से भरी हुई थी । यद्यपि वह आचरण में परम्परावादी थी, किन्तु धन और वैभवजन्य संस्कृति के आधार पर ऊँच-नीच के भेद का तिरस्कार करती थी । वह स्वयं उत्पीड़ित थी । और भावना द्वारा, स्वयं की जीवन-अनुभूति के द्वारा, माँ स्वयं प्रेमचन्द के पात्रों में अपनी गणना कर लिया करती थी’ । इससे पता चलता है कि मुक्तिबोध की माँ एक साधारण स्त्री थीं । उन्हें हम भारतीय समाज की प्रतिनिधि स्त्री कह सकते हैं । वे देख पाती हैं कि उनके दुखों का जैसा वर्णन प्रेमचंद कर पाते हैं वैसा और कोई नहीं कर पाता। मुक्तिबोध को माँ के हवाले से प्रेमचंद मिलते हैं । माँ के जरिए मिले प्रेमचंद मुक्तिबोध जैसे लेखक को आत्मोंमुख बनाते हैं। मुक्तिबोध को प्रेमचंद अलग तरीके से प्रभावित कराते हैं । मुक्तिबोध लिखते हैं-‘ (प्रेमचन्दजी) उनका कथा-साहित्य पढ़ते हुए उनके विशिष्ट उँचे पात्रों द्वारा हमारे अन्त:करण में विकसित की गयी भावधाराएँ हमें न केवल समाजोन्मुख करती है, वरन् वे आत्मोन्मुख भी कर देती है । और अब प्रेमचन्द हमें आत्मोन्मुख कर देते हैं, तब वे हमारी आत्म-केन्द्रिकता के दुर्ग को तोड़कर हमें एक अच्छा मानव बनाने में लग जाते हैं । प्रेमचन्द समाज के चित्रणकर्त्ता ही नहीं, वरन् वे हमारी आत्मा के शिल्पी भी है’ । मुझे लगता है कि भारत कि जो जनता प्रेमचंद से बेइंतहा प्यार करती है वह इसलिए कि वे सच्चे लेखक कि तरह हमारी आत्मा का शिल्पन करते (गढ़ते)हैं।
दूसरी तरफ परसाई हैं जो जूता कैसे फटा पर विचार करते हुए संत कवि कुंभन्दास को याद करते हैं और प्रेमचंद से ही पूछ बैठते हैं –‘चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?’ फिर परसाई इस सवाल का उत्तर देते हुए कहते हैं –‘मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया’।परसाई इशारा करते हैं कि प्रेमचंद समाज में मौजूद बहुत से पत्थरों को जो राह में ठोकर की तरह मौजूद हैं उन पर प्रहार करते हैं। इसलिए प्रेमचंद उन लोगों की पहली पसंद हैं जिनकी राह में ठोकर मौजूद हैं ,जब तब ठेस लग जाती है । ऐसे लोग प्रेमचंद को अपना हमसफर पाते हैं।
(यह लेख 31जुलाई 2020 को दैनिक हिंदुस्तान समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था) 

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