ढ़ाई हजार वर्ष से भी अधिक समय हुआ जब भारत की धरती पर एक महामानव आए जिन्होंने ‘तुमुल कोलाहल कलह’ से आकुल-व्याकुल समस्त मनुष्य जाति को शांति और आश्वस्ति का गंभीर वाणी में संदेश दिया कि बैर से बैर शांत नहीं होता, अबैर से शांत होता है। यह युद्ध के घोष के विरुद्ध बुद्ध का घोष था- करुणा का, मैत्री का, शील और प्रज्ञा का धम्म-घोष !
बुद्ध के संदेश में एक प्रकाश था जिसने समस्त मानव जाति को सभ्यता की एक नई राह सुझाई ! और यह प्रकाश तिब्बत, चीन, मंगोलिया, कोरिया, वर्मा, हिंद चीन, जापान, लंका और पश्चिम एशिया तक फैलता गया। मैथ्यू अर्नाल्ड ने बुद्ध को ठीक ही ‘एशिया का आलोक’ (Light of Asia) कहा था। एशिया के इस आलोक ने मानव की रचना और विचारधारा को नई प्रेरणा दी। न केवल धर्म-दर्शन और तर्कशास्त्र का बल्कि शिल्प कला और साहित्य का बहुपक्षीय विकास और विस्तार हुआ। एशिया का यह आलोक फूटा था यहीं गया की पावन धरती पर ! गौतम को यहीं आकर बुद्धत्व का प्रकाश मिला। अपनी ‘भूमि स्पर्श’ मुद्रा वाली मूर्ति में बुद्ध इसी धरती की ओर संकेत करते दिखाई देते हैं- यही है वह धरती जो मेरे बुद्धत्व का प्रमाण है।
दुनिया को ‘अप्प दीपो भव’ का संदेश देने वाले गौतम बुद्ध को दुनिया महान शिक्षक के रूप में याद करती है। प्राचीन भारत के इतिहास में एक हजार वर्षों तक धम्म की जिस विशाल तरंग ने समूचे भारत को सराबोर कर दिया था। उसके सर्वोच्च शिखर पर जो महिमामयी मूर्ति विराजमान है, दुनिया उन्हें शाक्य मुनि गौतम बुद्ध के नाम से जानती है। प्राचीन भारत में उन्हीं की प्रेरणा से एक महान सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ और धर्म साहित्य, कला और संस्कृति में एक नव जागरण। आधुनिक भारत में भी उन्नीसवीं शताब्दी से जिस महान नवजागरण का आरंभ हुआ उसकी प्रेरणा का एक शक्ति स्रोत भगवान बुद्ध हैं। त्रिपिटक का संपादन-प्रकाशन-अनुवाद, तिब्बत संरक्षित बौद्ध साहित्य के मूल ग्रन्थों की खोज और सबसे बढ़कर स्वाधीनता संग्राम के दौर में आधुनिक भारत के भविष्य के भारत के निर्माण में बुद्ध के सामाजिक विचारों का प्रचार हमारे सांस्कृतिक जागरण का संबल बना। आजादी के बाद समूचे देश में सम्राट अशोक द्वारा सारनाथ में स्थापित स्तंभ के उस शीर्ष भाग को अपना राष्ट्रीय चिह्न स्वीकार किया जिसमें चार सिंह चार दिशाओं में गर्जना करते हुए बुद्ध द्वारा प्रतिपादित सार्वभौम सत्य की घोषणा कर रहे हैं, जिसकी निचली वेदिका में उत्कीर्ण गज, अश्व , वृषभ और सिंह बुद्ध के जन्म, महाभिनिष्क्रमण, धर्मचक्र प्रवर्तन और सत्य के सर्वतोमुखी निर्भय प्रचार का संकेत करते है। राष्ट्रीय ध्वज में स्थापित चक्र एक ओर कालचक्र का तो दूसरी ओर धर्मचक्र का, उसकी शाश्वत सनातन गति का प्रतीक है । इस चक्र के भीतर से बुद्ध का संदेश अब भी गूंजता है- चरथ भिक्खवे…
समय निरन्तर चल रहा है, देशवासियों, तुम भी युगचक्र के साथ निरंतर चलते रहो, चलते रहो। यह सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में जड़ता के विरुद्ध गति का संदेश प्राचीन भारत में बुद्ध ने दिया। आधुनिक भारत को अपनी रूढ़ियों से, अपनी दुर्बलता और पिछड़ेपन से संघर्ष और मुक्ति के लिए विचारों के जिन अस्त्रों की आवश्यकता थी वे बुद्ध की तपस्याओं के कमंडलू से निकले थे। मनुष्य को परखने की कसौटी जाति नहीं, चरित्र है। बुद्ध का यह संदेश समता और सामाजिक न्याय के विचारों में फलीभूत हुआ। यज्ञ में पशुबलि धर्म नहीं, वरन् अंधविश्वास है, हिंसा धर्म नहीं – अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है-बुद्ध के इस संदेश ने जीव मात्र के प्रति दया, मानव मात्र के प्रति करुणा ओर सहानुभूति, त्याग और सेवा के विचार को युग का आदर्श बना दिया। वैर से वैर शांत नहीं होता, अवैर से शांत होता है- बुद्ध के इस संदेश ने विश्व में शांति और मैत्री के आदर्श को परवान चढ़ाया। बुद्ध के इन संदेशों में वह प्रकाश था जिसने पहले एशिया को और फिर समूचे विश्व मानस को आलोकित किया। बुद्ध वाणी से प्रकाशित इस आलोक को पूरी दुनिया में सुना गया।
विश्व कविता ने और भारतीय कविता ने बुद्ध की वाणी से प्रेरणा लेकर मानव की विकास यात्रा को अभिनव प्रकाश से भर दिया था। आज जब चारों ओर जाति, वर्ण, पंथ और संप्रदाय के नाम पर घृणा वैर, हिंसा, कलह, वैमनस्य और विद्वेष की विषाक्त लहरें उठ रही हैं और अहिंसा , शांति, करुणा, मैत्री, प्रेम और एकता के मूल्यों के लिए खतरा पैदा कर रही हैं, दुनिया एक और विश्व युद्ध की ओर बढ़ रही है तो अहिंसा, शांति, करुणा, मैत्री, प्रेम और एकता के मूल्यों की, बुद्ध के विरासत की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। बुद्ध की महान वसीयत अहिंसा, शांति, करुणा, मैत्री, प्रेम और एकता को जन मन से जोड़कर अतीत को वर्तमान की शक्ति में बदलने की ज़रूरत है। ताकि एक बेहतर भविष्य की ओर बढ़ा जा सके जिसकी बुनियाद में अहिंसा और करुणा हो, समता और शांति हो, मैत्री और एकता हो, त्याग और सेवा हो।
आज जब बामियान की पहाड़ियों में उत्कीर्ण बुद्ध की विशाल मूर्ति को तोड़ कर ढ़हाने वाली तालिबानी बंदूकों की सत्ता मानव जाति को मुंह चिढ़ा रही है तब क्यों न हम बुद्ध की बोध-भूमि पर एकत्र होकर इन बंदूकों के भद्दे शोर के प्रतिवाद में कविता का धम्म-घोष करें।
हज़ारों वर्षों से बुद्ध भारतीय ही नहीं विश्व कविता,कला और स्थापत्य को प्रेरित और प्रभावित करते रहे हैं। हम बुद्ध की भूमि में एकत्र होकर कविता और कला की उस दुनिया का पुन: स्मरण ही नहीं बल्कि पुन: सृजन करना चाहते हैं। विश्व को अपने आलोक से आलोकित करने वाली मानवीय करुणा की धारा नये सिरे से अपने भीतर प्रवाहित होते अनुभव करना चाहते हैं।
‘बुद्ध की धरती पर कविता’- काव्य- या़त्रा की श्रृंखला इसी उद्देश्य आयोजित है । बुद्ध की निर्वाण भूमि कुशीनगर में (2019) और जन्मभूमि लुंबिनी में (2020) के बाद इस काव्य यात्रा की तीसरी कड़ी बोध गया में 12-13 नवम्बर 2022 को आयोजित की जा रही है।
दो दिन तक चलने वाले इस कार्यक्रम में हम हिन्दी ही नहीं भारतीय और विश्व कविता में बुद्ध की उपस्थिति पर विचार करेंगे ।देश भर से आने वाले कवियों की बुद्ध केन्द्रित कविताओं में अवगाहन करेंगे और इस तरह अपने भीतर बुद्ध की अवतारणा करेंगे।
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